Jakhami Shayari In Hindi | जख्मी शायरी हिंदी में
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Jakhami Shayari
शाख दर शाख होती है जख्मी
जब परिंदा शिकार होता है
पाँव जख्मी हुए और दूर है मंजिल वासिफ
खून ए असलाफ की अज्मत को जगा लूँ तो चलूँ
शाम के तीर से जख्मी है खुर्शीद का सीना
नूर सिमट कर सुर्ख कबूतर बन जाता है
जमीन की कोख ही जख्मी नहीं अंधेरों से
है आसमाँ के भी सीने पे आफ्ताब का जख्म
हर एक लय मेरी उखड़ी उखड़ी सी दिल का हर तार जैसे जख्मी
ये कौन सी आग जल रही है ये मेरी गीतों को क्या हुआ है
खुद अपने पाँव भी लोगों ने कर लिए जख्मी
हमारी राह में काँटे यहाँ बिछाते हुए
कर के जख्मी तू मुझे सौंप गया गैरों को
कौन रक्खेगा मिरे जख्म पे मरहम तुझ बिन
गो जख्मी हैं हम पर उसे क्या गम है हमारा
अब तक भी न पट्टी है न मरहम है हमारा
हाथ काँटों से कर लिए जख्मी
फूल बालों में इक सजाने को
फुर्कत की शब खामोशियाँ जख्मों की फिर अंगड़ाइयाँ
आँखें जब अपनी नम हुईं बेचारगी अच्छी लगी
जख्मों को रफू कर लें दिल शाद करें फिर से
ख्वाबों की कोई दुनिया आबाद करें फिर से
लहू में तैरता फिरता है मेरा खस्ता बदन
मैं डूब जाऊँ तो जख्मों को देखे भाले कौन
जख्मों को अश्क ए खूँ से सैराब कर रहा हूँ
अब और भी तुम्हारा चेहरा खिला रहेगा
दिल की जख्मों को किया करता है ताजा हर दम
फिर सितम ये है कि रोने भी नहीं देता है
देखोगे कि मैं कैसा फिर शोर मचाता हूँ
तुम अब के नमक मेरे जख्मों पे छिड़क देखो
पड़े हैं नफरत के बीच दिल में बरस रहा है लहू का सावन
हरी भरी हैं सरों की फसलें बदन पे जख्मों के गुल खिले हैं
दिल के जख्मों की चुभन दीदा ए तर से पूछो
मेरे अश्कों का है क्या मोल गुहर से पूछा
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